मृत्यु एक उत्सव है –
पता नहीं मृत्यु से लोग क्यों डरते हैं, जीवन का हर संस्कार उत्सव के रुप में मनाया जाता है। जनोत्सव, अन्नप्रासन, जनेउ संस्कार, विवाह संस्कार सभी को, तो उत्सव के रुप में मनाया जाता है, तब मृत्यु के प्रति इतना भय क्यों, यदि जीवन एक उत्सव है तो मृत्यु महोत्सव है। जीवन में अनिश्चितता हो सकती है, किन्तु मृत्यु में कंही कोई अनिश्चितता नहीं होती है। जीवन में असत्यता का समावेश हो सकता है, पर मृत्यु एक अटल सत्य है। जीवन अच्छा हो यह आकांक्षा तो सब की रहती है पर मृत्यु का रुप अच्छा हो, इस पर कोई विचार ही नहीं करता है। जीवन ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष का होता है, पर मृत्यु तो अनंत है। लोग सामान्यतः कह देते है कि मृत्यु के बाद क्या होगा, ये किसने देखा है, पर किसी ने मृत्यु के बाद की स्थिति को समझने का प्रयास ही कब किया हैै, जिसने प्रयास किया है, उसने मृत्यु के बाद की स्थिति को देखा है, और जाना है। नचिकेता ने मृत्यु के बाद की स्थिति को समझने का प्रयास किया तो उसने उस स्थिति को देखा, और जाना है। अमरता क्या है, अमरता का अर्थ शरीर में सांसे चलना भर नहीं है, अमरता का अर्थ कुछ और भी है। मृत्यु के रहस्य का अविष्कारक नचिकेता ने जीवन और मृत्यु के सत्य को करीब से देखा है।
मृत्यु के रहस्य का अविष्कारक नचिकेता कौन था –
नचिकेता ऋषि वाजश्रवा का पुत्र था, अत्यधिक अध्यात्मिक प्रकृति और संकल्पित प्रवृत्ति का बालक था। नचिकेता के संकल्प ने यमराज के विचारों को पराजित किया था। एक बार नचिकेता के पिता ने स्वर्ग प्राप्ति की कामना से एक महायज्ञ किया, और उस यज्ञ में बूढ़ी और बिना दूध देने वाली गायें दान में दीं, इस पर नचिकेता बहुत दुःखी हुआ और पिता से प्रश्न किया कि आप मुझको किसे दान में देंगे। नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवा ने क्रोध में आकर नचिकेता से कहा, मैं, तुम्हें यमराज को दान में दूंगा। नचिकेता ने पिता के वचनों को गंभीरता से लिया और यमलोक की ओर चल पड़ा, यमलोक पहुच कर यमराज के द्वार पर तीन दिन भूखे प्यासे रहकर यमराज की प्रतीक्षा की। जब यमराज आये तब नचिकेता और यमराज के बीच वृहद् संवाद हुआ, और उनके बीच का यह संवाद एक उपनिषद बन गया, जिसे ‘‘कठोपनिषद’’ कहते है।
कठोपनिषद क्या है –
नचिकेता और यमराज के बीच का संवाद ही कठोपनिषद है। एक छोटे से बालक और काल के देवता यमराज के बीच संवाद होना और उस संवाद को ‘‘उपनिषद’’ बन जाना एक परम स्थिति है। कठोपनिषद में आया है कि जब नचिकेता यमराज के द्वार पर तीन दिन तक भूखे प्यासे रहकर यमराज की प्रतीक्षा में लीन था, तब यमराज ने प्रसन्न होकर नचिकेता को तीन वरदान मांगने को कहा, उस पर नचिकेता ने पहला वरदान पिता के मन को शांत करने का मांगा, दूसरा वरदान स्वर्ग व मोक्ष प्राप्ति के लिये अग्नि यज्ञ की विद्या की जानकारी के रुप में मांगा। मानव का उसकी मृत्यु के बाद क्या होता है, इस रहस्य को जानने का तीसरा वरदान मांगा। तीसरे वरदान को सुन कर यमराज विचलित हो गये, उन्होंने नचिकेता सेे कहा कि इस वरदान के बदलेे अन्य कोई और वरदान मांग लो, यमराज ने नचिकेता को प्रलोभन दिया कि तीसरे इस वरदान के बदले सुख-सम्पदा, स्वर्णमहल, स्वर्ग की कन्यायें, धन-बल, इच्छामृत्यु आदि कुछ भी मांग लो। नचिकेता ने यमराज की एक बात भी नहीं सुनी और मृत्यु के बाद के रहस्य जानने के वरदान के प्रति संकल्पित रहा, अंत में यमराज को नचिकेता के संकल्प के सामने हार मानना पड़ी। नचिकेता और यमराज के बीच क्या-क्या बातें हुई, इसका संकलन ही कठोपनिषद है।
मृत्यु को कैसे जीता जा सकता है –
जीवन के अमरत्व का आकलन दो तरह से किया जाता है, कुछ लोगों का मानना है कि जिस दिन आदमी की अर्थी उठती है, उस दिन से ही उसका जीवन प्रारंभ होता है, यदि उसे एक दिन याद रखा गया तो उसका जीवन एक दिन का ही होता है, यदि उसे तेरहवीं तक याद किया गया तो उसका जीवन तेरह दिन का है, यदि वरषी तक याद रखा गया तो उसका जीवन एक वर्ष का होगा, किन्तु यदि उस व्यक्ति को गांधी, भगत सिंह, विवेकानन्द की तरह युगों-युगों तक याद किया जाता है तो वह व्यक्ति अमर हो जाता है, वह मृत्यु को भी जीत लेता है और मृत्यु उससे हार जाती है।
एक और पक्ष भी है जो कहता है कि पृथ्वी का जीवन और मृत्यु एक लौकिक प्रक्रिया है, आलोकिक स्थिति में सत्मर्कों के माध्यम से, यदि व्यक्ति की आत्मा जीवन और मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है, मृत्यु के बाद यदि आत्मा भगवान के श्री चरणों में विलीन हो जाती है, आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है, और वह व्यक्ति चौरासी लाख योनियों से मुक्त हो जाता है, तो, यह उस व्यक्ति की और उस व्यक्ति की आत्मा की मृत्यु पर विजय है, और यही उस व्यक्ति व उस की आत्मा का अमरत्व है।
जीवन का सत्य –
मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये, जीवन के एक-एक क्षण को सम्पूर्ण जीवन्ता के साथ जीना चाहिये, मंगलकर्मों की आहुति देकर जीवन के एक-एक पल को सवारना, सजाना चाहिये। त्याग, तपस्या, दया, भाव से भरे संवेदनशील जीवन को उत्सव के रुप में जीना चाहिये। प्रयास यह रहे कि अपने जीवन के साथ-साथ, दूसरों के जीवन के लिये भी जियें, जीवन की यहीं सत्यता है। मृत्यु की प्रतिक्षा न करें, पर यदि मृत्यु आ जाती है तो दोनों बाहें फैलाकर उसका स्वागत करने के लिये तैयार रहें। उस समय मन में पूर्ण शांति और तृप्तता हो। मृत्यु यदि कभी हमारी सांकल खट-खटाये, तो हम स्वयम् जाकर दरवाजा खोलें और उसका स्वागत करें, यही मुक्ति है, यही जीवन की सच्ची अमरता है, और यही जीवन का सत्य है।
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