अर्जुन के बाण और द्रोण के आँसू –
आज और कल का भारत पूर्व काल में भारत में गुरुकुल हुआ करते थे, गुरुकुल में संस्कार और संस्कृतियों से परिपूर्ण शिक्षा दी जाती थी, वेद, उपनिषादों की ऋचायें सिखायी जाती थी, वसुदेव कुटुम्बकम के भाव के साथ मानव कल्याण की शिक्षा दी जाती थी। उसी शिक्षा पद्धति में ही विवेकानंद, तुलसी और कबीर जन्मेे हैं। आज एक यक्ष प्रश्न यह है कि हम सब अपने बच्चों को आई.ए.एस. आई.पी.एस., डॉक्टर, इंजीनियर बनाना चाहते हैै। बच्चों को विवेकानंद बनाने, तुलसी बनाने के लिये सोचता ही कौन है। गुरु-शिष्य एक परम्परा थी। शिष्यों का गुरु पर अगाध विश्वास होता था, और गुरुजन अपने शिष्य को अपने से अधिक श्रेष्ठ बनाने के लिये सम्पूर्ण प्रयास करते थे, यही इस परम्परा का मूल मंत्र था। महाभारत की एक कथा है कि, महाभारत युद्ध के समय जब अर्जुन अपने गुरु द्रोणाचार्य पर बाण चला रहे थे,तो अर्जुन के हाथ कांप रहे थे, अर्जुन के बाण द्रोणाचार्य की छाती को वेध नहीं पा रहे थे, तब द्रोणाचार्य के ऑखो से अश्रु गिर पडे़, अर्जुन ने द्रोणाचार्य से पूछा, हे गुरु क्या मेरे बाणों से आपको पीड़ा हो रही है, इस लिये आपके अश्रु गिर रहे हैं, तब द्रोणाचार्य ने कहा कि तेरे बाणों से मुझे कोई पीड़ा नहीं हो रही है, और ना ही इस कारण मेरे अश्रु गिरे हैं। मेरी पीड़ा और मेरे अश्रु गिरने का कारण कुछ और ही है, यदि कारण जानना चाहते हो तो सुनो, मेरी पीड़ा और ऑसुओं का कारण यह है कि अर्जुन के चलाये हुये बाण मेरी छाती को वेध क्यों नहीं पा रहे हैै, क्या मैंने सम्पूर्ण जीवन में अपने शिष्य अर्जुन को यही शिक्षा दी है कि उसके बाण छाती को वेध ना पायें। क्या यहीं मेरे जीवन भर का तपस्या का परिणाम है, क्या मैंने अपने शिष्य को इतना ही दीक्षित किया है। तेरे बाणों को मेरी छाती वेध ना पाना ही मेरे ऑसुओं और मेरी पीड़ा का कारण है। यह सुनकर अर्जुन की आंखों से अश्रुधार बहने लगी, यह है, भारत की गुरु-शिष्य परम्परा। कहां खो गयीं वे, परम्परायेें, आज तो हम सब अपने वर्तमान के लिये अपने भविष्य की ही आहूति देने को तत्पर हो रहे हैं। भौतिकता की अंधी दौड़ में नैतिकता, सामाजिकता, स्नेह और सम्मान सब कुछ भूल गये हैं। हमें एक बार फिर आध्यात्मिकता के आंगन की ओर मुडना होगा, और मानवीय संवेदनाओं के मंदिर की स्थापना करनी होगी।
भारत के स्वर्णिम पंखों पर किसकी नज़र लग गई है-
भारत वह देश है, जहां विवेकानंदन, तुलसी, कबीर, ने जन्म लिया है। जिनकी आभा पूरे विश्व में छाई हुई है। भारत में जन्मा, बौद्ध धर्म, चीन, जापान सहित विश्व के अनेक देशों का मूल धर्म बन गया है। आज सम्पूर्ण विश्व गांधी के जीवन को एक दर्शन के रुप में स्वीकार कर रहा है। विवेकानंद का जीरो पर दिया गया उद्बोधन सम्पूर्ण विश्व में अलंकृत हो रहा है। सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत के स्वर्णिम पंखों को पता नहीं किसकी नज़र लग गई है। कंही ना कंही हम सब भी इसके लिये उत्तरदायी तो नहीं हैं, आज इस बात पर चिंतन करना आवश्यक हो गया है।
बढ़ता आतंकवाद, नक्सलवाद, राजा-सोनम रघुवंशी जैसे काण्ड क्यों हो रहे हैं। क्या हो गया है आज समाज को, कहीं ऐसा तो नहीं कि संस्कार विहीन शिक्षा और भौतिकवाद की अंधी दौड़ के कारण ही इस तरह की सामाजिक विकृतियां आ रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु बम गिराने की धमकियां, मिसाइलों के द्वारा जन हानि होना इस बात का प्रतीक है कि दिन व दिन मानवीय संवेदनाओं का ह्नास हो रहा है, लगता है यह सब संस्कार विहीन शिक्षा का ही परिणाम है।
हर-हर, बम-बम –
वर्तमान युग में विश्व में आज परमाणु बम की बातें हो रही है, भारत में तो युगों पहले हर-हर, बम-बम का स्वर गूंजता रहा है, पर भारत का हर-हर, बम-बम मानव की सुख शांति के लिये गूंजता था, भारत के हर-हर, बम-बम के स्वर में आध्यात्मिकता के अंकुर प्रस्फुटित होते है। किन्तु आज विश्व स्तर पर जिस बम की गूंज हो रही है, वह तो मानव के विध्वंस का प्रतीक बन गया है। भौतिक विकास और आध्यात्म दोनों ही विज्ञान पर आधारित हैं, पर जब भौतिक विकास मानवीय संवेदनाओं से मुख मोड़ लेता है तो वह नकारात्मक हो जाता है, किन्तु आध्यात्म सदैव सकारात्मक ही रहता है। भारत के इतिहास में उल्लेखित पुष्पक विमान की गति, ध्वनि की गति के तीव्र थी, आज के राकेट, मिसाइल में उतनी गति हो ही नहीं सकती है। यदि भौतिकता और आध्यात्म के बीच फासला बढ़ता गया और विज्ञान का उपयोग, भौतिकवादी, संघर्ष के लिये किया गया तो, आने वाले दिन मेें मानव शांति के लिये भीषण विपत्ति आ सकती है। शिक्षा और विज्ञान दोनों की धारा को संरचना और सकारात्मकता की ओर मोड़ना होगा। संस्कार विहीन शिक्षा ही, आज समाज को, विध्वंस की और ले जा रही है। वर्तमान में बहुत से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विद्यालय तो हैं, पर ज्यादातर इन विद्याालयों में केवल विषय पढ़ाये जाते है संस्कार सेवा और संवेदनायें नहीं पढ़ाई जाती है। कहां खो गयीं वे, मूल्यवान परम्परायेें। आज तो हम सब अपने वर्तमान के लिये अपने भविष्य की ही आहूति देते जा रहे है। भौतिकता की अंधी दौड़ में नैतिकता, सामाजिकता, स्नेह और सम्मान सब कुछ भूल गये हैं। हमें एक बार फिर आध्यात्मिकता के आंगन की ओर मुडना होगा, और मानवीय संवेदनाओं के मंदिर की स्थापना करनी होगी।
आज का विज्ञान एक भटका हुआ राहगीर-
यह अखण्ड सत्य है कि आध्यात्मिकता से विरक्त हुआ, विज्ञान एक भटके हुए राहगीर की तरह है, जो कहां पहुचेगा उसे खुद ही पता नहीं है। राकेट, मिसाइल, चन्द्रयान बनाने वाला विज्ञान अपने आप को समय का सर्वोच्च शिखर समझ रहा है। पर आज भी विज्ञान, एक छोटे से प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पाया कि मरने के बाद मानव या मानव की आत्मा जाती कंहा है, मरने के बाद मानव का या उसकी आत्मा का क्या होता है ? एक छोटे से प्रश्न का उत्तर न खोज पाने वाला विज्ञान अपने को समय का अंतिम सोपान मान रहा है। सत्य तो यह है कि आध्यात्म के सामने विज्ञान बहुत बौना है। नासा चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण के समय निकालने की बात आज कर रहा है, पर युगों पहले ही हमारे मनीषियों ने अपने पंचांग में सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का समय निर्धारित कर दिया था।
डार्विंन का विकासवाद और मत्स्य अवतार से राम अवतार तक-
आज लोग डार्विंन को विकास वाद का जनक मानते है, डार्विंन ने जलचर, थलचर से लेकर विकसित मानव के विकास की बात बहुत बाद में कही है। भारत के आध्यात्मिक इतिहास में विकास वाद की सहज थ्योरी अंकित है, भारत के आध्यात्मिक लेखों में अवतारों की बात कही गयी है, वही वास्तविक विकास वाद की थ्योरी है। अवतारों का क्रम में विकास वाद देखिये, पहला मत्स्य अवतार (जलचर का विकास), कच्छप अवतार, शेषावतार (जलचर से थल चर के रुप में विकास) वराह अवतार (थल चर के चोपाया जीव रुप में विकास) नरसिंह अवतार (अर्ध पशु अर्ध मानव) बामन अवतार (अत्यंत छोटे कद का मानव) राम अवतार (सम्पूर्ण मानव) भारत के आध्यात्मिक विकास वाद की थ्योरी के सामने डार्विंन के विकास वाद की थ्योरी बहुत अधूरी लगती है। आइयें हम सब मिल कर फिर वहीं सुसंस्कारित भारत बनायें एक बार फिर रामकृष्ण और विवेकानंद के भारत के निर्माण का संकल्प लें।
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