जीवन का सत्य क्या हैं?

जीवन का सत्य क्या हैं?

जीवन का सत्य क्या हैं?

छत्तीसगढ के आदिवासी बाहुल्य वनांचल क्षेत्र सरगुजा से मैं तिहत्तर वर्षीय डाॅ.जे.पी. श्रीवास्तव अपने जीवन की धारा को बदलने का प्रयास कर रहा हूँ। मै सोचता हूँ जीवन क्या है? जीवन का सत्य क्या हैं? इस पर चिंतन करने का हमें समय ही नहीं मिल पाता है। मेरे मन में विचार आता है कि क्या उच्च आर्थिक सामाजिक या राजनैतिक स्थिति को प्राप्त कर लेना ही, जीवन है। या जीवन का सत्य कुछ और ही है। आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक शिखर पर पहुँचे लोग, क्या अपने भविष्य के प्रति में पूर्ण रुप से निश्चिंत हैं। या ये लोग अपने भविष्य को पूर्ण सुरक्षित महसूंस करते हैं। सच तो यह है, कि ये लोेग अपने भविष्य के प्रति, और अधिक संसकित रहते हैं। ये लोग बाहर से तो प्रसन्न और सहज दिखते हैं। पर इनके भीतर बहुत से अशांत ज्वालामुखी धधकते रहते हैं। तब यह चिंतन आवश्यक हो जाता है कि क्या ईश्वर ने हमें, धनवान, प्रतिष्ठावान या उच्च पदों पर पदासीन होने के लिये जन्म दिया है। या ईश्वर की हमारे प्रति कोई और अपेक्षा है। क्या इस तथ्य पर चिंतन करना आवश्यक नही है। यदि आवश्यक है तो चलिये आज और अभी से इस ओर चिंतन का शुमारंभ करते है।

 

 

 

आज और कल का भारत

आज और कल का भारत

अर्जुन के बाण और द्रोण के आँसू 

आज और कल का भारत पूर्व काल में भारत में गुरुकुल हुआ करते थे, गुरुकुल में संस्कार और संस्कृतियों से परिपूर्ण शिक्षा दी जाती थी, वेद, उपनिषादों की ऋचायें सिखायी जाती थी, वसुदेव कुटुम्बकम के भाव के साथ मानव कल्याण की शिक्षा दी जाती थी। उसी शिक्षा पद्धति में ही विवेकानंद, तुलसी और कबीर जन्मेे हैं। आज एक यक्ष प्रश्न यह है कि हम सब अपने बच्चों को आई.ए.एस. आई.पी.एस., डॉक्टर, इंजीनियर बनाना चाहते हैै। बच्चों को विवेकानंद बनाने, तुलसी बनाने के लिये सोचता ही कौन है। गुरु-शिष्य एक परम्परा थी। शिष्यों का गुरु पर अगाध विश्वास होता था, और गुरुजन अपने शिष्य को अपने से अधिक श्रेष्ठ बनाने के लिये सम्पूर्ण प्रयास करते थे, यही इस परम्परा का मूल मंत्र था। महाभारत की एक कथा है कि, महाभारत युद्ध के समय जब अर्जुन अपने गुरु द्रोणाचार्य पर बाण चला रहे थे,तो अर्जुन के हाथ कांप रहे थे, अर्जुन के बाण द्रोणाचार्य की छाती को वेध नहीं पा रहे थे, तब द्रोणाचार्य के ऑखो से अश्रु गिर पडे़, अर्जुन ने द्रोणाचार्य से पूछा, हे गुरु क्या मेरे बाणों से आपको पीड़ा हो रही है, इस लिये आपके अश्रु गिर रहे हैं, तब द्रोणाचार्य ने कहा कि तेरे बाणों से मुझे कोई पीड़ा नहीं हो रही है, और ना ही इस कारण मेरे अश्रु गिरे हैं। मेरी पीड़ा और मेरे अश्रु गिरने का कारण कुछ और ही है, यदि कारण जानना चाहते हो तो सुनो, मेरी पीड़ा और ऑसुओं का कारण यह है कि अर्जुन के चलाये हुये बाण मेरी छाती को वेध क्यों नहीं पा रहे हैै, क्या मैंने सम्पूर्ण जीवन में अपने शिष्य अर्जुन को यही शिक्षा दी है कि उसके बाण छाती को वेध ना पायें। क्या यहीं मेरे जीवन भर का तपस्या का परिणाम है, क्या मैंने अपने शिष्य को इतना ही दीक्षित किया है। तेरे बाणों को मेरी छाती वेध ना पाना ही मेरे ऑसुओं और मेरी पीड़ा का कारण है। यह सुनकर अर्जुन की आंखों से अश्रुधार बहने लगी, यह है, भारत की गुरु-शिष्य परम्परा। कहां खो गयीं वे, परम्परायेें, आज तो हम सब अपने वर्तमान के लिये अपने भविष्य की ही आहूति देने को तत्पर हो रहे हैं। भौतिकता की अंधी दौड़ में नैतिकता, सामाजिकता, स्नेह और सम्मान सब कुछ भूल गये हैं। हमें एक बार फिर आध्यात्मिकता के आंगन की ओर मुडना होगा, और मानवीय संवेदनाओं के मंदिर की स्थापना करनी होगी।

भारत के स्वर्णिम पंखों पर किसकी नज़र लग गई है-

भारत वह देश है, जहां विवेकानंदन, तुलसी, कबीर, ने जन्म लिया है। जिनकी आभा पूरे विश्व में छाई हुई है। भारत में जन्मा, बौद्ध धर्म, चीन, जापान सहित विश्व के अनेक देशों का मूल धर्म बन गया है। आज सम्पूर्ण विश्व गांधी के जीवन को एक दर्शन के रुप में स्वीकार कर रहा है। विवेकानंद का जीरो पर दिया गया उद्बोधन सम्पूर्ण विश्व में अलंकृत हो रहा है। सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत के स्वर्णिम पंखों को पता नहीं किसकी नज़र लग गई है। कंही ना कंही हम सब भी इसके लिये उत्तरदायी तो नहीं हैं, आज इस बात पर चिंतन करना आवश्यक हो गया है।
बढ़ता आतंकवाद, नक्सलवाद, राजा-सोनम रघुवंशी जैसे काण्ड क्यों हो रहे हैं। क्या हो गया है आज समाज को, कहीं ऐसा तो नहीं कि संस्कार विहीन शिक्षा और भौतिकवाद की अंधी दौड़ के कारण ही इस तरह की सामाजिक विकृतियां आ रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु बम गिराने की धमकियां, मिसाइलों के द्वारा जन हानि होना इस बात का प्रतीक है कि दिन व दिन मानवीय संवेदनाओं का ह्नास हो रहा है, लगता है यह सब संस्कार विहीन शिक्षा का ही परिणाम है।

हर-हर, बम-बम –

वर्तमान युग में विश्व में आज परमाणु बम की बातें हो रही है, भारत में तो युगों पहले हर-हर, बम-बम का स्वर गूंजता रहा है, पर भारत का हर-हर, बम-बम मानव की सुख शांति के लिये गूंजता था, भारत के हर-हर, बम-बम के स्वर में आध्यात्मिकता के अंकुर प्रस्फुटित होते है। किन्तु आज विश्व स्तर पर जिस बम की गूंज हो रही है, वह तो मानव के विध्वंस का प्रतीक बन गया है। भौतिक विकास और आध्यात्म दोनों ही विज्ञान पर आधारित हैं, पर जब भौतिक विकास मानवीय संवेदनाओं से मुख मोड़ लेता है तो वह नकारात्मक हो जाता है, किन्तु आध्यात्म सदैव सकारात्मक ही रहता है। भारत के इतिहास में उल्लेखित पुष्पक विमान की गति, ध्वनि की गति के तीव्र थी, आज के राकेट, मिसाइल में उतनी गति हो ही नहीं सकती है। यदि भौतिकता और आध्यात्म के बीच फासला बढ़ता गया और विज्ञान का उपयोग, भौतिकवादी, संघर्ष के लिये किया गया तो, आने वाले दिन मेें मानव शांति के लिये भीषण विपत्ति आ सकती है। शिक्षा और विज्ञान दोनों की धारा को संरचना और सकारात्मकता की ओर मोड़ना होगा। संस्कार विहीन शिक्षा ही, आज समाज को, विध्वंस की और ले जा रही है। वर्तमान में बहुत से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विद्यालय तो हैं, पर ज्यादातर इन विद्याालयों में केवल विषय पढ़ाये जाते है संस्कार सेवा और संवेदनायें नहीं पढ़ाई जाती है। कहां खो गयीं वे, मूल्यवान परम्परायेें। आज तो हम सब अपने वर्तमान के लिये अपने भविष्य की ही आहूति देते जा रहे है। भौतिकता की अंधी दौड़ में नैतिकता, सामाजिकता, स्नेह और सम्मान सब कुछ भूल गये हैं। हमें एक बार फिर आध्यात्मिकता के आंगन की ओर मुडना होगा, और मानवीय संवेदनाओं के मंदिर की स्थापना करनी होगी।

आज का विज्ञान एक भटका हुआ राहगीर-

यह अखण्ड सत्य है कि आध्यात्मिकता से विरक्त हुआ, विज्ञान एक भटके हुए राहगीर की तरह है, जो कहां पहुचेगा उसे खुद ही पता नहीं है। राकेट, मिसाइल, चन्द्रयान बनाने वाला विज्ञान अपने आप को समय का सर्वोच्च शिखर समझ रहा है। पर आज भी विज्ञान, एक छोटे से प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पाया कि मरने के बाद मानव या मानव की आत्मा जाती कंहा है, मरने के बाद मानव का या उसकी आत्मा का क्या होता है ? एक छोटे से प्रश्न का उत्तर न खोज पाने वाला विज्ञान अपने को समय का अंतिम सोपान मान रहा है। सत्य तो यह है कि आध्यात्म के सामने विज्ञान बहुत बौना है। नासा चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण के समय निकालने की बात आज कर रहा है, पर युगों पहले ही हमारे मनीषियों ने अपने पंचांग में सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का समय निर्धारित कर दिया था।

डार्विंन का विकासवाद और मत्स्य अवतार से राम अवतार तक-

आज लोग डार्विंन को विकास वाद का जनक मानते है, डार्विंन ने जलचर, थलचर से लेकर विकसित मानव के विकास की बात बहुत बाद में कही है। भारत के आध्यात्मिक इतिहास में विकास वाद की सहज थ्योरी अंकित है, भारत के आध्यात्मिक लेखों में अवतारों की बात कही गयी है, वही वास्तविक विकास वाद की थ्योरी है। अवतारों का क्रम में विकास वाद देखिये, पहला मत्स्य अवतार (जलचर का विकास), कच्छप अवतार, शेषावतार (जलचर से थल चर के रुप में विकास) वराह अवतार (थल चर के चोपाया जीव रुप में विकास) नरसिंह अवतार (अर्ध पशु अर्ध मानव) बामन अवतार (अत्यंत छोटे कद का मानव)  राम अवतार (सम्पूर्ण मानव) भारत के आध्यात्मिक विकास वाद की थ्योरी के सामने डार्विंन के विकास वाद की थ्योरी बहुत अधूरी लगती है। आइयें हम सब मिल कर फिर वहीं सुसंस्कारित भारत बनायें एक बार फिर रामकृष्ण और विवेकानंद के भारत के निर्माण का संकल्प लें।
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चैत्र नवरात्रि अन्याय अवधारणायें

चैत्र नवरात्रि मात्र एक पर्व ही नहीं है, वरन् धर्म, संस्कृति, समाजिकता और विज्ञान का एक अमिट संगम है। चैत्र नवरात्रि के परिप्रेक्ष्य में अनेक मिथक जनश्रुतियां और मत है। सर्वाधिक प्रचलित मत दावन महिषासुर से जुड़ा हुआ है।

महिषासुर कौन था ?

दानव महिषासुर ऋषि कश्यप का पोता था और दानवराज रंभ का पुत्र था। महिषासुर का आधा शरीर भैंस का और आधा शरीर दानव का था। महिषासुर ने ब्रम्हा जी की घौर तपस्या कर उनसे अमरता का वरदान प्राप्त किया था। महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया था। उसके अत्याचार से सभी लोकों में हा-हा कार मच गया था।

दैत्य, राक्षस और दानव में क्या अंतर है ?

महिषासुर एक दानव था, दानव अपना आकार और रुप अपनी इच्छानुसार बदल सकते है। बलि, दैत्यराज थे और ये दैत्यों की श्रेणी में आते थे। रावण, राक्षस था। राक्षस, दानव और दैव्य तीनों अलग-अलग है। इनमें दानव सबसे अत्याचारी माने जाते हैं।

नवरात्रि का शुभारंभ और आदिशक्ति

महिषासुर से अत्याचार से सभी देवता अत्यंत भयभीत तथा दुःखी हो गये थे। सभी देवता, भगवान ब्रम्हा विष्णु और महेश की शरण में गये और अपनी व्यथा बतायी। तब भगवान ब्रम्हा, विष्णु, महेश के क्रोध से ज्योति निकली, जिससे आदिशक्ति का रुप लिया, उस आदिशक्ति को ब्रम्हा, विष्णु, महेश सहित सभी देवताओं ने अपने अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये। मां आदिशक्ति ने नौ दिनों तक अलग-अलग रुपों में महिषासुर से घोर युद्ध किया। पहला दिन शैलपुत्री, दूसरे दिन ब्रम्हचारिणी, तीसरे दिन चंद्रघंटा, चौथे दिन कुष्मांडा, पांचवे दिन स्कंदमाता, छठवें दिन कत्यायनी, सातवें दिन कालरात्रि, आठवें दिन महागौरी, नौवें दिन सिद्धदात्री का रुप लेकर घोर युद्ध करते हुवे, दसवें दिन दानव महिषासुर का वध कर दिया, इस तरह नवरात्रि पर्व का शुभारंभ हुआ।

नवरात्रि और किष्किधां

नवरात्रि शुभारंभ की एक और कथा है कि किष्किधा के समीप कृष्यमूस पर्वत पर चढ़ाई करते समय भगवान राम ने नौ दिनों तक बिना अन्न-जल ग्रहण किये मॉ दुर्गा की उपासना की थी। उसी के फल के कारण भगवान राम ने रावण पर विजय पाई थी। अनेक लोगों का मत है कि तभी से नवरात्रि का पर्व प्रारंभ हुआ है।

नवरात्रि और पिठक व शुन्ती

नवरात्रि के परिप्रेक्ष्य में एक कथा और आती है कि वृहस्पति जी ने ब्रम्हा से नवरात्रि शुभारंभ के बारे में पूछा तो ब्रम्हाजी ने बताया कि पिठत नाम का एक ब्राम्हण था, जो भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। उसने अपनी पुत्री शुन्ती को श्राप दिया था,श्राप के कारण शुन्ती का पति कुष्ठ रोग से पीड़ित पति मिला था, शुन्ती ने नौ दिन तक मॉ दुर्गा की बिना अन्न-जल ग्रहण किये घोर तपस्या की, मॉ दुर्गा प्रकट हुई और शुन्ती से वरदान मांगने को कहा तो शुन्ती ने कहा मॉ मेरा पति कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाये। मॉ दुर्गा ने कहा कि तुम नौ दिनों में से एक दिन का पुण्य दान कर दो, तो तुम्हारा पति कुष्ठ रोग से मुक्त हो जायेगा, शुन्ती ने नौ दिनों में से एक दिन का पुण्य दान कर दिया तो उसका पति कुष्ठ मुक्त हो गया। जब एक के पुण्य का इतना महत्व है तो नौ दिनों के पुण्य का कितना महत्व होगा।

नवरात्रि, मॉ शाकाम्बरी और जौ (जवारा)

दुर्गा सप्तशदी के ग्यारहवें अध्याय में मॉ शाकाम्बरी की कथा है, कथा के अनुसार सौ साल के घोर अकाल के बाद पृथ्वी में एक भी अन्न नहीं बचा। समस्त पृथ्वी बंजर हो गयी। मनुष्य अन्न के बिना मरने लगे, तब मां शाकाम्बरी ने अपनी काया से शाक (अन्न) को उत्पन्न किया, वह पहला शाक (अन्न) जौ था। इसीलिये नवरात्रि में जौ को अंकुरित कर जवारा बोने का प्रचलन है। मन्यता है कि ‘‘जौ’’ पृथ्वी में उगने वाला सबसे पहला अन्न है, जो मॉ शाकाम्बरी की काया से उत्पन्न हुआ है।

नवरात्रि का वैज्ञानिक पक्षचैत्र नवरात्रि की मीमांसा

चैत नवरात्रि के समय शीत ऋतु समाप्त होती है, वसंत और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। ऋतुओं का संधिकाल, संक्रमण काल होता है, इस समय रोग और बीमारियां अत्यधिक प्रभावी होती है। रोगाणुओं का प्रभाव बढ़ जाता है। इस समय उपवास, व्रत तथा स्वच्छता, मनुष्य को शारीरिक तथा मानसिक सम्बलता प्रदान करती है, जिससे मनुष्य की बैक्टीरिया, वायरस से लड़ने की क्षमता बढ़ती है, आदमी की रोग-प्रतिरोधक क्षमता (एम्यूनिटी) में वृद्धि होती है।
साल में दो बार नवरात्रि आती है। नौ दिन के उपवास तथा मानसिक व्रत से मनुष्य के शरीर की ओव्हरहालिंग हो जाती है, और व्यक्ति नई उर्जा के साथ कार्य करता है। आज विज्ञान भी उपवास के महत्व को स्वीकार कर रहा है।

नवरात्रि का सामाजिक पक्ष

मॉ के महत्व नारी शक्ति की प्रतीत है नवरात्रि। जब महिषासुर से सभी देवता हार गये थे, तब सभी देवों को मॉ का स्मरण हुआ। समस्त पुरुष समाज के थक जाने के बाद एक नारी ने अस्त्र-शस्त्र उठाये और महिषासुर का वध किया। नारी शक्ति का यही दर्शन नवरात्रि मे समाहित है।

नवरात्रि ही क्यों, नव दिवस क्यों नहीं, रात्रि की मीमांसा-

इस महत्वपूर्ण पर्व का नाम नवरात्रि क्यों पड़ा नव दिवस क्यों नहीं पड़ा, इस पर भी चिंतन आवश्यक है। रात्रि का अपना महत्व है। दीपावली हो, होलिका दहन हो, या शिवरात्रि, सभी रात में ही मनायें जाते है, इसका कारण है कि ऋषि, मुनियों ने दिन से अधिक रात्रि को महत्व दिया है। रात्रि में कोलहल नहीं होता, शांति रहती है, एकाग्रता अधिक रहती है। मॉ आदिशक्ति और महिषासुर के बीच युद्ध रात दिन अनवरत रुप से नौ दिन चला था, दिन की अपेक्षा रात्रि के समय, यह युद्ध और भयंकर हो जाता था। इसलिये भी यह पर्व नव दिवस नहीं, नवरात्रि के रुप में मनाया जाता है।

 

 

जीवन और मृत्यु का रहस्य

जीवन और मृत्यु का रहस्य

मृत्यु एक उत्सव है –

पता नहीं मृत्यु से लोग क्यों डरते हैं, जीवन का हर संस्कार उत्सव के रुप में मनाया जाता है। जनोत्सव, अन्नप्रासन, जनेउ संस्कार, विवाह संस्कार सभी को, तो उत्सव के रुप में मनाया जाता है, तब मृत्यु के प्रति इतना भय क्यों, यदि जीवन एक उत्सव है तो मृत्यु महोत्सव है। जीवन में अनिश्चितता हो सकती है, किन्तु मृत्यु में कंही कोई अनिश्चितता नहीं होती है। जीवन में असत्यता का समावेश हो सकता है, पर मृत्यु एक अटल सत्य है। जीवन अच्छा हो यह आकांक्षा तो सब की रहती है पर मृत्यु का रुप अच्छा हो, इस पर कोई विचार ही नहीं करता है। जीवन ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष का होता है, पर मृत्यु तो अनंत है। लोग सामान्यतः कह देते है कि मृत्यु के बाद क्या होगा, ये किसने देखा है, पर किसी ने मृत्यु के बाद की स्थिति को समझने का प्रयास ही कब किया हैै, जिसने प्रयास किया है, उसने मृत्यु के बाद की स्थिति को देखा है, और जाना है। नचिकेता ने मृत्यु के बाद की स्थिति को समझने का प्रयास किया तो उसने उस स्थिति को देखा, और जाना है। अमरता क्या है, अमरता का अर्थ शरीर में सांसे चलना भर नहीं है, अमरता का अर्थ कुछ और भी है। मृत्यु के रहस्य का अविष्कारक नचिकेता ने जीवन और मृत्यु के सत्य को करीब से देखा है।

मृत्यु के रहस्य का अविष्कारक नचिकेता कौन था –

नचिकेता ऋषि वाजश्रवा का पुत्र था, अत्यधिक अध्यात्मिक प्रकृति और संकल्पित प्रवृत्ति का बालक था। नचिकेता के संकल्प ने यमराज के विचारों को पराजित किया था। एक बार नचिकेता के पिता ने स्वर्ग प्राप्ति की कामना से एक महायज्ञ किया, और उस यज्ञ में बूढ़ी और बिना दूध देने वाली गायें दान में दीं, इस पर नचिकेता बहुत दुःखी हुआ और पिता से प्रश्न किया कि आप मुझको किसे दान में देंगे। नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवा ने क्रोध में आकर नचिकेता से कहा, मैं, तुम्हें यमराज को दान में दूंगा। नचिकेता ने पिता के वचनों को गंभीरता से लिया और यमलोक की ओर चल पड़ा, यमलोक पहुच कर यमराज के द्वार पर तीन दिन भूखे प्यासे रहकर यमराज की प्रतीक्षा की। जब यमराज आये तब नचिकेता और यमराज के बीच वृहद् संवाद हुआ, और उनके बीच का यह संवाद एक उपनिषद बन गया, जिसे ‘‘कठोपनिषद’’ कहते है।

कठोपनिषद क्या है –

नचिकेता और यमराज के बीच का संवाद ही कठोपनिषद है। एक छोटे से बालक और काल के देवता यमराज के बीच संवाद होना और उस संवाद को ‘‘उपनिषद’’ बन जाना एक परम स्थिति है। कठोपनिषद में आया है कि जब नचिकेता यमराज के द्वार पर तीन दिन तक भूखे प्यासे रहकर यमराज की प्रतीक्षा में लीन था, तब यमराज ने प्रसन्न होकर नचिकेता को तीन वरदान मांगने को कहा, उस पर नचिकेता ने पहला वरदान पिता के मन को शांत करने का मांगा, दूसरा वरदान स्वर्ग व मोक्ष प्राप्ति के लिये अग्नि यज्ञ की विद्या की जानकारी के रुप में मांगा। मानव का उसकी मृत्यु के बाद क्या होता है, इस रहस्य को जानने का तीसरा वरदान मांगा। तीसरे वरदान को सुन कर यमराज विचलित हो गये, उन्होंने नचिकेता सेे कहा कि इस वरदान के बदलेे अन्य कोई और वरदान मांग लो, यमराज ने नचिकेता को प्रलोभन दिया कि तीसरे इस वरदान के बदले सुख-सम्पदा, स्वर्णमहल, स्वर्ग की कन्यायें, धन-बल, इच्छामृत्यु आदि कुछ भी मांग लो। नचिकेता ने यमराज की एक बात भी नहीं सुनी और मृत्यु के बाद के रहस्य जानने के वरदान के प्रति संकल्पित रहा, अंत में यमराज को नचिकेता के संकल्प के सामने हार मानना पड़ी। नचिकेता और यमराज के बीच क्या-क्या बातें हुई, इसका संकलन ही कठोपनिषद है।

मृत्यु को कैसे जीता जा सकता है –

जीवन के अमरत्व का आकलन दो तरह से किया जाता है, कुछ लोगों का मानना है कि जिस दिन आदमी की अर्थी उठती है, उस दिन से ही उसका जीवन प्रारंभ होता है, यदि उसे एक दिन याद रखा गया तो उसका जीवन एक दिन का ही होता है, यदि उसे तेरहवीं तक याद किया गया तो उसका जीवन तेरह दिन का है, यदि वरषी तक याद रखा गया तो उसका जीवन एक वर्ष का होगा, किन्तु यदि उस व्यक्ति को गांधी, भगत सिंह, विवेकानन्द की तरह युगों-युगों तक याद किया जाता है तो वह व्यक्ति अमर हो जाता है, वह मृत्यु को भी जीत लेता है और मृत्यु उससे हार जाती है।
एक और पक्ष भी है जो कहता है कि पृथ्वी का जीवन और मृत्यु एक लौकिक प्रक्रिया है, आलोकिक स्थिति में सत्मर्कों के माध्यम से, यदि व्यक्ति की आत्मा जीवन और मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है, मृत्यु के बाद यदि आत्मा भगवान के श्री चरणों में विलीन हो जाती है, आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है, और वह व्यक्ति चौरासी लाख योनियों से मुक्त हो जाता है, तो, यह उस व्यक्ति की और उस व्यक्ति की आत्मा की मृत्यु पर विजय है, और यही उस व्यक्ति व उस की आत्मा का अमरत्व है।

जीवन का सत्य –

मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये, जीवन के एक-एक क्षण को सम्पूर्ण जीवन्ता के साथ जीना चाहिये, मंगलकर्मों की आहुति देकर जीवन के एक-एक पल को सवारना, सजाना चाहिये। त्याग, तपस्या, दया, भाव से भरे संवेदनशील जीवन को उत्सव के रुप में जीना चाहिये। प्रयास यह रहे कि अपने जीवन के साथ-साथ, दूसरों के जीवन के लिये भी जियें, जीवन की यहीं सत्यता है। मृत्यु की प्रतिक्षा न करें, पर यदि मृत्यु आ जाती है तो दोनों बाहें फैलाकर उसका स्वागत करने के लिये तैयार रहें। उस समय मन में पूर्ण शांति और तृप्तता हो। मृत्यु यदि कभी हमारी सांकल खट-खटाये, तो हम स्वयम् जाकर दरवाजा खोलें और उसका स्वागत करें, यही मुक्ति है, यही जीवन की सच्ची अमरता है, और यही जीवन का सत्य है।

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चैत्र नवरात्रि की मीमांसा

चैत्र नवरात्रि की मीमांसा

चैत्र नवरात्रि मात्र एक पर्व ही नहीं है, वरन् धर्म, संस्कृति, समाजिकता और विज्ञान का एक प्रखर संगम है। चैत्र नवरात्रि के परिप्रेक्ष्य में अनेक मिथक जनश्रुतियां और मत हैं। सर्वाधिक प्रचलित मत दावन महिषासुर से जुड़ा हुआ है।

महिषासुर कौन था ?

दानव महिषासुर ऋषि कश्यप का पोता था और दानवराज रंभ का पुत्र था। महिषासुर का आधा शरीर भैंस का और आधा शरीर दानव का था। महिषासुर ने ब्रम्हा जी की घौर तपस्या कर उनसे अमरता का वरदान प्राप्त किया था। महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया था। उसके अत्याचार से सभी लोकों में हा-हाकार मच गया था।

दैत्य, राक्षस और दानव में क्या भेद है ?

महिषासुर एक दानव था, दानव अपना आकार और रुप अपनी इच्छानुसार बदल सकते है। बलि, दैत्यराज थे और ये दैत्यों की श्रेणी में आते थे। रावण, राक्षस था। राक्षस, दानव और दैत्य तीनों अलग-अलग है। इनमें दानव सबसे अत्याचारी माने जाते हैं।

नवरात्रि का शुभारंभ और आदिशक्ति

महिषासुर से अत्याचार से सभी देवता अत्यंत भयभीत तथा दुःखी हो गये थे। सभी देवता, भगवान ब्रम्हा विष्णु और महेश की शरण में गये और अपनी व्यथा बतायी। तब भगवान ब्रम्हा, विष्णु, महेश के क्रोध से एक ज्योति निकली, और उस ज्योति ने आदिशक्ति का रुप लिया, उस आदिशक्ति को ब्रम्हा, विष्णु, महेश सहित सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये। माँ आदिशक्ति ने नौ दिनों तक अलग-अलग रुपों में महिषासुर से घोर युद्ध किया। पहला दिन शैलपुत्री, दूसरे दिन ब्रम्हचारिणी, तीसरे दिन चंद्रघंटा, चौथे दिन कुष्मांडा, पांचवे दिन स्कंदमाता, छठवें दिन कत्यायनी, सातवें दिन कालरात्रि, आठवें दिन महागौरी, नौवें दिन सिद्धदात्री का रुप लेकर घोर युद्ध करते हुवे, दसवें दिन दानव महिषासुर का वध कर दिया, इस तरह नवरात्रि पर्व का शुभारंभ हुआ।

नवरात्रि और किष्किधां

चैत्र नवरात्रि  के शुभारंभ की एक और कथा है कि किष्किंधा के समीप कृष्यमूल पर्वत पर चढ़ाई करते समय भगवान राम ने नौ दिनों तक बिना अन्न-जल ग्रहण किये माँ दुर्गा की उपासना की थी। उसी के फल के कारण भगवान राम ने रावण पर विजय पाई थी। अनेक लोगों का मत है कि तभी से नवरात्रि का पर्व प्रारंभ हुआ है।

नवरात्रि और पिठक व शुन्ती

नवरात्रि के परिप्रेक्ष्य में एक कथा और आती है कि देवताओं के गुरु वृहस्पति जी ने भगवान ब्रम्हा से नवरात्रि शुभारंभ के बारे में पूछा तो ब्रम्हाजी ने बताया कि पिठत नाम का एक ब्राम्हण था, जो भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। उसने अपनी पुत्री शुन्ती को श्राप दिया था, श्राप के कारण शुन्ती को कुष्ठ रोग से पीड़ित पति मिला था, शुन्ती ने नौ दिन तक मॉ दुर्गा की बिना अन्न-जल ग्रहण किये घोर तपस्या की, तब माँ दुर्गा प्रकट हुई और शुन्ती से वरदान मांगने को कहा तो शुन्ती ने कहा मॉ मेरा पति कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाये। माँ दुर्गा ने कहा, कि तुम नौ दिनों में से एक दिन का पुण्य दान कर दो, तो तुम्हारा पति कुष्ठ रोग से मुक्त हो जायेगा, शुन्ती ने नौ दिनों में से एक दिन का पुण्य दान कर दिया तो उसका पति कुष्ठ मुक्त हो गया। जब एक दिन के पुण्य का इतना महत्व है तो नौ दिनों के पुण्य का कितना महत्व होगा।

नवरात्रि, माँ शाकाम्बरी और जौ (जवारा)

दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में माँ शाकाम्बरी की कथा है, इस कथा के अनुसार सौ साल के घोर अकाल के बाद पृथ्वी में एक भी अन्न नहीं बचा। समस्त पृथ्वी बंजर हो गयी। मनुष्य अन्न के बिना मरने लगे, तब मां शाकाम्बरी ने अपनी काया से शाक (अन्न) को उत्पन्न किया, वह पहला शाक (अन्न) जौ था। इसीलिये नवरात्रि में जौ को अंकुरित कर जवारा बोने का प्रचलन है। मन्यता है कि ‘‘जौ’’ पृथ्वी में उगने वाला सबसे पहला अन्न है, जो मॉ शाकाम्बरी की काया से उत्पन्न हुआ है।

वरात्रि का वैज्ञानिक पक्ष

नवरात्रि के समय शीत ऋतु समाप्त होती है, वसंत और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। ऋतुओं का संधिकाल, संक्रमण काल होता है, इस समय रोग और बीमारियां अत्यधिक प्रभावी होती है, रोगाणुओं का प्रभाव बढ़ जाता है। इस समय उपवास, व्रत तथा स्वच्छता, का प्रभाव मनुष्य को शारीरिक तथा मानसिक रुप से सम्बल बनाता है, जिससे मनुष्य में बैक्टीरिया तथा वायरस से लड़ने की क्षमता बढ़ती है और मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता (एम्यूनिटी) में वृद्धि होती है। वर्ष में दो बार नवरात्रि आती है। नौ दिन के उपवास तथा मानसिक व्रत से मनुष्य के शरीर की ओव्हरहालिंग हो जाती है, और व्यक्ति नई उर्जा के साथ कार्य करता है। आज विज्ञान भी उपवास की महत्ता को स्वीकार कर रहा है। आज ऋषियों, मुनियों की तरह चिकित्सक और वैज्ञानिक भी उपवास रहने की सलाह देते हैं।

नवरात्रि का सामाजिक पक्ष

माँ के महत्व और नारी शक्ति का प्रतीत है नवरात्रि पर्व। जब महिषासुर से सभी देवता हार गये थे, तब सभी देवताओं को माँ का स्मरण हुआ। समस्त पुरुष समाज के थक जाने के बाद एक नारी के रुप में माँ आदिशक्ति ने अस्त्र-शस्त्र उठाये और महिषासुर का वध किया। नारी शक्ति का यही दर्शन, नवरात्रि पर्व में समाहित है।

नवरात्रि ही क्यों, नवदिवस क्यों नहीं,

इस महत्वपूर्ण पर्व का नाम नवरात्रि क्यों पड़ा नव दिवस क्यों नहीं पड़ा, इस पर भी चिंतन आवश्यक है। रात्रि का अपना महत्व है। दीपावली हो या होलिका दहन हो, या शिवरात्रि, सभी रात में ही मनायें जाते है, इसका कारण है कि ऋषि, मुनियों ने दिन से अधिक रात्रि को महत्व दिया है। रात्रि में कोलहल नहीं होता, शांति रहती है, एकाग्रता अधिक रहती है। माँ आदिशक्ति और महिषासुर के बीच रात दिन अनवरत रुप से नौ दिन तक युद्ध चला था, दिन की अपेक्षा रात्रि के समय, यह युद्ध और भयंकर हो जाता था। इसलिये यह पर्व नव दिवस के रुप में नहीं, नवरात्रि के रुप में मनाया जाता है।

 

 

आँसुओं का मूल्य

आँसुओं का मूल्य:- 

आँसुओं का मूल्य:- 

आज के युग में मनुष्य की कमाई की या उसकी उपलब्धियों का आंकलन उसके आर्थिक कद, या फिर उसकी ख्याति, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा से ही किया जाता है, पर क्या यह आंकलन सही है। बहुत से लोगों का यह भी सोचना है, और पहले मैं, भी यही सोचा करता था कि मनुष्य के जीवन की वास्तिविक कमाई का पता इस बात से चलता है, कि उस व्यक्ति की अर्थी के पीछे कितने लोग चल रहे हैं, पर अब उम्र के पड़ाव पार करने के बाद मेरी सोच बदल गयी है। अब मुझे यह लगने लगा है कि व्यक्ति की अर्थी के पीछे चलने वाले व्यक्तियों की संख्या ही व्यक्ति के जीवन की वास्तविक कमाई नहीं है, क्योेंकि दिवगंत व्यक्ति की अर्थी के पीछे चलने वाले बहुत से लोग सामाजिक बाध्यता के कारण तथा उस दिवगंत व्यक्ति की पद प्रतिष्ठा तथा ओहदा के प्रभाव के कारण भी अर्थी के पीछे चलते हैैं।

मेरा सोचना है कि मनुष्य के जीवन की वास्तविक कमाई यह है कि उस व्यक्ति की अर्थी निकलते समय कितने लोगों के, कितनी मात्रा में आँसू गिरे। इन आँसुओं की मात्रा ही उस व्यक्ति के जीवन की वास्तविक कमाई है, क्योंकि आँसुओं का मूल्य सहज नहीं होता। आँसुओं की एक-एक बूंद में भावनाओं अनेक महासागर समाये रहते हैं।